नई दिल्ली, राष्ट्रबाण। पंद्रह जुलाई को बांग्लादेश में जो हुआ, उसने देश में नई कहानी लिख दी। देश में जारी हिंसा के बीच आज सोमवार को प्रधानमंत्री शेख हसीना अपनी बहन के साथ ढाका छोड़कर भारत आ गईं। उधर, प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री आवास पर कब्जा जमा लिया है। पड़ोसी देश में यह स्थिति क्यों और कैसे आई। इसके लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की ओर पलटना होगा।
कहानी 1971 से शुरू होती है
कहानी 1971 से शुरू होती है। ये वो साल था जब मुक्ति संग्राम के बाद बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजादी मिली। एक साल बाद 1972 में बांग्लादेश की सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों के लिए सरकारी नौकरियों में 30 फीसदी आरक्षण दे दिया। इसी आरक्षण के विरोध में बांग्लादेश में प्रदर्शन हो रहे हैं। यह विरोध जून महीने के अंत में शुरू हुआ था, तब यह हिंसक नहीं था। मामला तब बढ़ गया, जब इन विरोध प्रदर्शनों में हजारों लोग सड़क पर उतर आए। 15 जुलाई को ढाका विश्वविद्यालय में छात्रों की पुलिस और सत्तारूढ़ अवामी लीग समर्थित छात्र संगठन से झड़प हो गई। इस घटना में कम से कम 100 लोग घायल हो गए।
300 से ज्यादा लोगों की जान चली गई
अगले दिन भी बांग्लादेश में हिंसा जारी रही और कम से कम छह लोग मारे गए। 16 और 17 जुलाई को भी और झड़पें हुईं और प्रमुख शहरों की सड़कों पर गश्त करने के लिए अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया। 18 जुलाई को कम से कम 19 और लोगों की मौत हो गई जबकि 19 जुलाई को 67 लोगों की जान चली गई। इस तरह से इस हिंसक आंदोलन के चलते अब तक 300 से ज्यादा लोगों की जान चली गई है।
पुलिस मूक दर्शक बनी रही
कुछ दिन पहले नीलखेत मोड़ पर वॉटर कैनन, पुलिस के वाहन और पुलिसवालों की लंबी कतारें बता रही थीं कि वे पूरी तरह तैयार हैं। किस चीज के लिए? निश्चित रूप से निहत्थे छात्रों को बचाने के लिए नहीं या जनता की सुरक्षा के लिए नहीं। जब छात्रों पर हमला हो रहा था, तो पुलिस ने उंगली तक नहीं उठाई। सत्ताधारी दल के छात्र संगठन छात्र लीग के हथियारबंद गुंडे पिछली रात से अपने गिरोहों को जमा करने में जुटे हुए थे। उन्होंने खुलेआम छात्रों को प्रदर्शन न करने की चेतावनी देते हुए धमकी दी थी। तय था कि पुलिस उनका ही बचाव करेगी, छात्रों का नहीं।
हेलमेट पहने सरकारी गुंडे मैदान में उतरे
इसकी वजह भी साफ थी। पिछले दरवाजे से दिए जाने वाले कोटा का लाभ छात्र लीग के लिए ही बनाया गया था। जाहिर है, जब हेलमेट पहने सरकारी गुंडे खुले छोड़े गए तो छात्रों के पास अपने बचाव के लिए करने को कुछ खास नहीं था। दूसरी ओर पुलिस ने इस तमाशे को खुलकर चलने दिया। पुलिस तभी हस्तक्षेप कर रही थी जब लोगों की ताकत गुंडों पर भारी पड़ जाती थी।
यह केवल बेरोजगारी की मांग नहीं
नतीजा, उस दिन पूरे देश में कई लोग मारे गए। छात्रों और युवाओं के इस प्रदर्शन को केवल रोजगार की मांग के साथ जोड़कर देखना गलत होगा। कोटा आंदोलन केवल एक हिमखंड की सतह भर है। दरअसल, लंबे समय से एक जनविरोधी सरकार जिस तरीके से लोगों को कुचलती आ रही है, उसने ऐसे असंतोष को जन्म दिया है। कोटा आंदोलन ने तो इस असंतोष में बस चिंगारी लगाने का काम किया है। जिस वक्त आम लोग लाशें गिन रहे थे और घायलों को बचा रहे थे, प्रधानमंत्री शेख हसीना कॉक्स बाजार में एक्वाकल्चर और सी फूड कॉन्फ्रेंस में आए प्रतिनिधियों का स्वागत कर रही थीं और पर्यटन की संभावनाएं बता रही थीं।
विरोध के लिए रखे गए ताबूत
बांग्लादेश में सरकारी नौकरी में कोटा की व्यवस्था 1972 में मिली आजादी के तुरंत बाद एक अंतरिम व्यवस्था के रूप में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए की गई थी, जिसका उद्देश्य उनके योगदान को मान्यता देना था। उनकी संख्या आबादी के 0.25 प्रतिशत से भी कम थी। लेकिन सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों की ऐसी फर्जी सूची बनानी शुरू की कि पचास साल बाद 30 प्रतिशत कोटा के माध्यम से 120 गुना आवंटन इस नाम पर किया जाने लगा। ऐसा इसलिए किया गया, ताकि पार्टी का काडर पिछले दरवाजे से सरकारी नौकरी में घुस जाए।
2008 में भड़का आक्रोश
खुद अवामी लीग के आला नेताओं ने ऐसा कहते हुए इसकी पुष्टि की थी, कि “एक बार स्क्रीनिंग निकाल लो, हम तुम्हें वाइवा में पास करा देंगे। इस तरह सरकारी नौकरी केवल पार्टी के लोगों को ही दी जाएगी। इसी के खिलाफ 2008 में पहली बार असंतोष भड़का। फिर दूसरा आंदोलन 2013 में हुआ। यह पहले से ज्यादा भीषण था। हालांकि इस असंतोष के इसके सिवा कुछ और कारण भी हैं।
अदालती देश के बाद प्रदर्शन
1972 से जारी इस आरक्षण व्यवस्था को 2018 में सरकार ने समाप्त कर दिया था। जून में उच्च न्यायालय ने सरकारी नौकरियों के लिए आरक्षण प्रणाली को फिर से बहाल कर दिया। कोर्ट ने आरक्षण की व्यवस्था को खत्म करने के फैसले को भी गैर कानूनी बताया था। कोर्ट के आदेश के बाद देश में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। हालांकि, बांग्लादेश की शेख हसीना सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। सरकार की अपील के बाद सर्वोच्च अदालत ने उच्च न्यायालय के आदेश को निलंबित कर दिया और मामले की सुनवाई के लिए 7 अगस्त की तारीख तय कर दी।
महंगाई ने आग में घी डाला
पिछले कुछ बरस में महंगाई आसमान छूने लगी है और लोग एकदम बेचारगी की हालत तक पहुंच गए हैं। इसी बीच प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक घोषणा की कि उनका चपरासी चार करोड़ डॉलर की संपत्ति जुटा चुका है और हेलिकॉप्टर से चलता है। लेकिन अकेले उनका चपरासी हेलिकॉप्टर से नहीं चलता। इस आंदोलन में भी जब गुस्साए प्रदर्शनकारियों ने पुलिस को छत पर बंधक बना लिया, तो उन्हें छुड़ाने के लिए हेलिकॉप्टर भेजे गए।
सब सरकार के इशारे पर
बांग्लादेश में कभी भी न्यायपालिका और कार्यपालिका स्वायत्त नहीं रहे। इस सरकार ने दोनों को आपस में मिला दिया है। सरकार को जब लोगों की निगाह में खुद को अच्छा दिखना होता है तो वह न्यायपालिका का इस्तेमाल कर लेती है। श्रेय सरकार को जाता है और दोष अदालतों पर। इस मामले में भी कोटा वाला पूरा नाटक कोई अपवाद नहीं रहा है।
मांग पूरा करने से इनकार
मामले ने तूल और तब पकड़ लिया, जब प्रधानमंत्री हसीना ने अदालती कार्यवाही का हवाला देते हुए प्रदर्शनकारियों की मांगों को पूरा करने से इनकार कर दिया। सरकार के इस कदम के चलते छात्रों ने अपना विरोध तेज कर दिया। प्रधानमंत्री ने प्रदर्शनकारियों को ‘रजाकार’ की संज्ञा दी। दरअसल, बांग्लादेश के संदर्भ में रजाकार उन्हें कहा जाता है जिन पर 1971 में देश के साथ विश्वासघात करके पाकिस्तानी सेना का साथ देने के आरोप लगा था।
कोटा को लेकर आक्रोश फूटा
विरोध प्रदर्शनों के केंद्र में बांग्लादेश की आरक्षण व्यवस्था है। इस व्यवस्था के तहत स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों के लिए सरकारी नौकरियों में 30% आरक्षण का प्रावधान था। 1972 में शुरू की गई बांग्लादेश की आरक्षण व्यवस्था में तब से कई बदलाव हो चुके हैं। 2018 में जब इसे खत्म किया गया, तो अलग-अलग वर्गों के लिए 56% सरकारी नौकरियों में आरक्षण था। समय-समय पर हुए बदलावों के जरिए महिलाओं और पिछड़े जिलों के लोगों को 10-10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई। इसी तरह पांच फीसदी आरक्षण धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए और एक फीसदी दिव्यांग कोटा दिया गया। हालांकि, हिंसक आंदोलन के बीच 21 जुलाई को बांग्लादेश के शीर्ष न्यायालय ने सरकारी नौकरियों में अधिकतर आरक्षण खत्म कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर क्या फैसला सुनाया?
21 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने उस फैसले को पलट दिया, जिसके तहत सभी सिविल सेवा नौकरियों के लिए दोबारा आरक्षण लागू कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय में, यह निर्धारित किया गया कि अब केवल पांच फीसदी नौकरियां स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों के लिए आरक्षित होंगी। इसके अलावा दो फीसदी नौकरियां अल्पसंख्यकों या दिव्यांगों के लिए आरक्षित होंगी। वहीं बाकी बचे पदों के लिए अदालत ने कहा कि ये योग्यता के आधार पर उम्मीदवारों के लिए खुले होंगे। यानी 93 फीसदी भर्तियां अनारक्षित कोटे से होंगी।
कोर्ट ने लगभग आरक्षण खत्म कर दिया
शुरुआत से प्रदर्शनकारी छात्र मुख्य रूप से स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के लिए आरक्षित नौकरियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि इसकी जगह योग्यता आधारित व्यवस्था लागू हो। प्रदर्शनकारी इस व्यवस्था को खत्म करने की मांग कर रहे थे, उनका कहना है कि यह भेदभावपूर्ण है और प्रधानमंत्री शेख हसीना की अवामी लीग पार्टी के समर्थकों के फायदे के लिए है। बता दें कि प्रधानमंत्री शेख हसीना बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीब उर रहमान की बेटी हैं, जिन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का नेतृत्व किया था।
फैसले के बाद भी इसलिए बनी रही उग्रता
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद माना जा रहा था कि विरोध प्रदर्शन खत्म हो जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आंदोलन और भी उग्र हो गया। छात्र संगठनों ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मतलब विरोध प्रदर्शनों का अंत नहीं है और इन्होंने प्रधानमंत्री शेख हसीना के इस्तीफे की मांग शुरू कर दी। जहांगीरनगर विश्वविद्यालय के विरोध समन्वयक महफूजुल हसन ने कहा कि उनकी अभी भी कई मांगें हैं जिन्हें सरकार को पूरा करना होगा, तभी वे प्रदर्शन समाप्त करेंगे। उन्होंने कहा, ‘अब हम अपने भाइयों की जान के लिए न्याय चाहते हैं। प्रधानमंत्री को माफी मांगनी चाहिए और जो लोग दोषी हैं, उन पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए।’
आरक्षण संशोधन विधेयक संसद में पारित किया जाए
हसन ने कहा कि छात्र समूह उन विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को हटाने की भी मांग कर रहे हैं, जहां प्रदर्शनकारियों को हिंसा का सामना करना पड़ा और उन राजनेताओं को भी हटाया जाना चाहिए, जिन्होंने प्रदर्शनकारियों के बारे में भड़काऊ टिप्पणियां फैलाईं। ढाका विश्वविद्यालय के छात्र और विरोध-प्रदर्शन के समन्वयक हसीब अल-इस्लाम ने कहा कि वे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को सकारात्मक मानते हैं, लेकिन मांग की कि आरक्षण संशोधन विधेयक संसद में पारित किया जाए। इस्लाम ने कहा कि विरोध तब तक जारी रहेगा जब तक सरकार उनकी संशोधन मांगों के अनुसार एक कार्यकारी आदेश जारी नहीं करती।
पूरे मसले पर सरकार का क्या रुख है?
बांग्लादेश में ताजा हिंसा के बाद प्रधानमंत्री शेख हसीना ने रविवार को राष्ट्रीय सुरक्षा पैनल की बैठक की। इसके बाद एक बयान में पीएम हसीना ने कहा, ‘जो लोग इस समय सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, वे छात्र नहीं बल्कि आतंकवादी हैं जो देश को अस्थिर करना चाहते हैं।’ प्रधानमंत्री ने कहा, ‘मैं अपने देशवासियों से इन आतंकवादियों का सख्ती से दमन करने की अपील करती हूं। राजधानी ढाका में एक मेडिकल कॉलेज अस्पताल में तोड़फोड़ हुई। इस घटना के बाद स्वास्थ्य मंत्री सामंत लाल सेन ने कहा कि अस्पताल पर हमला अस्वीकार्य है। उन्होंने ने कहा कि हर किसी को इससे बचना चाहिए।
इस तरह की बातें नागवार गुजरीं
विरोध के शुरुआत प्रधानमंत्री शेख हसीना ने आरक्षण प्रणाली का बचाव करते हुए कहा था कि युद्ध में अपने योगदान के लिए स्वतंत्रता सेनानियों को सर्वोच्च सम्मान मिलना चाहिए, चाहे उनका राजनीतिक जुड़ाव कुछ भी हो। उनकी सरकार ने मुख्य विपक्षी दलों, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी पार्टी पर अराजकता को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है।
अब कमान सेना के हाथ
इस बीच, सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों ने पीएम हसीना से सड़कों से सैनिकों को हटाने और संकट को हल करने के लिए ‘राजनीतिक पहल’ करने का आग्रह किया है। वहीं सेना प्रमुख जनरल वकर-उज-जमान ने कहा है कि सेना हमेशा लोगों के हितों और देश की किसी भी जरूरत के लिए मौजूद रहेगी।